अंग्रेजी के जाने-माने साहित्यकार समरसेट मॉम ने कहा था कि धन छठी इंद्री की तरह है- और आप अन्य पांच इंद्रियों को इसके बिना इस्तेमाल नहीं कर सकते। भारतीय इस बात को अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए तो भारत का सबसे बड़ा आयोजन धन का महोत्सव- दीपावली- होता है। दिवाली के पांच दिन बीतने के साथ ही अगली दिवाली का इंतजार शुरू हो जाता है और महीने भर पहले से ही प्रारंभ हो जाती हैं इसकी तैयारियां। जाहिर है, हर घर में, हर दिल में दिवाली का काउंट डाउन शुरू हो चुका है। आखिर क्या कारण है कि एक आध्यात्मिक कहे जाने वाले देश में भी धन को सांस्कृतिक और धार्मिक तौर पर इतना महत्व दिया गया है? धनार्जन को पुरूषार्थ में क्यों गिना गया है?
शायद इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है कि धन अगर सबसे बड़ी नहीं, तो एक बहुत बड़ी प्रेरणा है। धन का प्रलोभन कड़ी मेहनत के लिए प्रेरित करता है। पैसा संतुष्टि देता है और शायद आपको हैरानी हो कि यह असरदार दर्दनिवारक भी है! ये सारी बातें हम सदियों से जानते हैं, पर पश्चिम ने बाकायदा इन्हें कसौटी पर कसकर, जांच-परखकर स्वीकार किया है। स्वाभाविक है कि किसी न किसी रूप में, धन की पूजा दुनिया भर में होती है, जैसा कि वोल्टायर ने कहा था, "जब सवाल धन का हो, तो हर कोई एक ही धर्म का होता है।"
बहरहाल, भले ही तमाम चिंतक, विचारक और समाज सुधारक बताएं कि धन सभी खुशियों के बराबर नहीं है, पर इसमें कोई शक नहीं कि यह खुद एक बहुत बड़ी खुशी है। पैसे की सिर्फ एक झलक ही हमें रोमांचित और कार्य के लिए प्रेरित कर देती है। यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के शोधकर्ताओं ने यह असर जानने के लिए एक दिलचस्प प्रयोग किया। उन्होंने नौ महिलाओं समेत 18 वालेटियर्स को बताया कि वे हाथ में पकड़ी हुई चीज को जितना जोर लगाकर दबाएंगे, उन्हें उतने ज्यादा पैसे मिलेंगे। फिर उन्हें एक सेंट के सिक्के या एक अंग्रेजी पाउंड नोट की तस्वीर दिखाई गई। ये तस्वीरें कंप्यूटर स्क्रीन पर महज 17, 50 या 100 मिलीसेकंड तक चलाई जाती थीं, यानी प्रतिभागियों को एक सेकंड से भी काफी कम समय तक उनकी झलक मिल पाती थी। वास्तव में, 17 और 50 मिलीसेकंड तो इतने कम समय हैं कि उनमें देखी गई चीज को अवचेतन में कौंधन की तरह माना जा सकता है।
वैज्ञानिकों की टीम ने इस दौरान उनके दिमाग की गतिविधि और त्वचा में होने वाली प्रतिक्रियाओं पर भी नजर रखी। यह देखा गया कि जब दिखाया जा रहा चित्र बड़ी धनराशि का था, तो पकड़ ज्यादा मजबूत होती थी। एक पाउंड की छवि के दौरान मस्तिष्क के वेंट्रल पैलिडम क्षेत्र में गतिविधियां ज्यादा बढ़ जाती थीं। शोधकर्ताओं का मानना है कि दिमाग में पुरस्कार से जुड़ी प्रक्रिया का केंद्र, वेंट्रल पैलीडम कॉर्टिकल मोटर जोन नामक हिस्से को उसी अनुपात में सक्रिय करता है, जितना बड़ा पुरस्कार (राशि) होता है। सबसे बड़ी बात, यह प्रेरणा अवचेतन के स्तर पर होती है। दूसरे शब्दों में कहें, तो धन हमें नींद या नीम बेहोशी में भी प्रेरित कर सकता है!
इसी से जुड़ा एक अन्य तथ्य है कि जब धन धीरे-धीरे करके मिलता रहता है, तो हम ज्यादा खुश रहते हैं। इसीलिए महीने में एक बार वेतन मिलने के बजाय रोजाना के हिसाब से भुगतान लेना कहीं अधिक सुखद होता है। स्टेनफोर्ड और टोरंटो यूनिवर्सिटी के संयुक्त अध्ययन में यह बात सामने आई। विशेषज्ञों का मानना है कि जब लोगों को (घंटों के हिसाब से) बार-बार पैसे मिलते हैं, तो उन्हें अपने महत्व और कीमत का ज्यादा एहसास होता है और इसका बेहद सकारात्मक असर उनकी खुशहाली के निजी स्तर पर पड़ता है। स्टेनफोर्ड के जेफरी प्रेफर कहते हैं, "यदि आपको घंटों या टाइमशीट पर दर्ज समय के हिसाब से भुगतान मिलता है, तो आप दुनिया को धन के नजरिए से देखते हैं। आपको अपना समय धन की तरह लगता है और धन के बारे में लगता है कि वह लगातार बढ़ते रहने को तैयार है।" भुगतान के इस तरीके में लोग अपने समय पर ज्यादा ध्यान देने के लिए प्रवृत्त होते हैं, क्योंकि इससे उन्हें सटीक रूप से पता होता कि उनके समय की कीमत क्या है।
बहरहाल, धन न सिर्फ प्रेरित करता है, बल्कि यह दर्द को भी दूर करता है। यहां तक कि यह सामाजिक तौर पर अस्वीकृत कर दिए जाने के दर्द को भी कम करता है। सो, कोई आश्चर्य नहीं कि पैसे के बारे में सोचना जल्दी ही उपचार पद्धति का एक हिस्सा बन जाए! अमेरिकी और चीनी विशेषज्ञों ने एक अध्ययन में पाया कि धन रखना तो दूर की बात, नकदी देखने भर से ही अस्वीकार किए जाने का एहसास और शारीरिक दर्द कम हो जाते हैं। इसका उल्टा भी सच है। जब लोग इस बारे में सोचते है कि कड़ी मेहनत से की गई गई उनकी कमाई का हिस्सा किसी चीज में खर्च हो गया, तो उनका दर्द बढ़ जाता है। दरअसल, जब लोग बड़ी धनराशि रखते हैं या उसके बारे में विचार ही कर लेते हैं, तो उनका आत्मविश्वास और स्वाभिमान बढ़ जाता है। ऎसे में वे भले ही कम समय के लिए, खुद को दूसरों पर कम निर्भर देखते हैं। यही वजह है कि जब प्रतिभागियों का धन से साक्षात्कार हुआ, तो उन्होंने शारीरिक तौर पर भी खुद को ज्यादा मजबूत महसूस किया। सन यात सेन यूनिवर्सिटी, चीन के साइकोलॉजिस्ट जिन्यु जोहु ने देखा कि सामाजिक अलगाव और बहिष्कार जैसी स्थिति में भी धन के बारे में सोच भर लेने से बड़ी राहत मिलती है।
जाहिर है, धन सिर्फ चीजें खरीदने के काम नहीं आता, वह हमारे एहसासों को भी सुदृढ़ करता है। वह जीने का सहारा होता है, हमारे आत्मविश्वास और स्वाभिमान की एक बड़ी वजह होता है। इसलिए, अगर हम धन की पूजा करते हैं, तो यह अच्छी बात है। यह ठीक है कि धन ही सबकुछ नहीं है, पर उससे भी बड़ा सच है कि यह बहुत कुछ है। अगर अभी भी कोई संशय बचा हो, तो अमेरिकी अभिनेत्री बो डेरेक की बात सुन लीजिए, "जो लोग कहते हैं कि धन खुशियां नहीं खरीद सकता, दरअसल, उन्हें यह नहीं पता होता कि शॉपिंग के लिए कहां जाना है?" क्या आप जानते हैं?
अमेरिका में "धनतेरस"
"ब्लैक फ्राइडे" नाम से किसी नकारात्मक भाव से जुड़े शुक्रवार का अंदाजा होता है, पर वास्तव में यह अमेरिका में खरीदारी के उत्सव की शुरूआत का सूचक है। अमेरिका का ब्लैक फ्राइडे काफी हद तक भारत में त्योहारी सीजन के दौरान ग्राहकों को लुभाने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों की तरह ही है। अमेरिका में थैंक्स गिविंग डे के बाद का दिन क्रिसमस सीजन का पहला शॉपिंग डे और खरीदारी के मान से वर्ष के व्यस्ततम दिनों में से एक होता है। इसे ही ब्लैक फ्राइडे कहा जाता है। इसके नामकरण के पीछे दो तरह की मान्यताएं हैं। पहली मान्यता के अनुसार, इसका ब्लैक शब्द व्यापारियों द्वारा खाते-बही में प्रयुक्त की जाने वाली काली स्याही से संबंधित है। दरअसल, रिटेल व्यावसायियों के लिए वर्ष में जनवरी से नवंबर का प्रारंभिक पखवाड़ा आमतौर पर घाटे का होता था, जबकि क्रिसमस सीजन की शुरूआत के साथ इस घाटे की भरपाई और लाभ का वक्त शुरू होता था। एकाउंटिंग की अमेरिकी परंपरा में नकारात्मक राशि को लाल स्याही और सकारात्मक (फायदे) की राशि को काली स्याही से अंकित किया जाता है। ब्लैक फ्राइडे उस कालखंड का प्रारंभ होता है, जब विक्रेताओं को लाभ होेना शुरू होता है। इस तरह ब्लैक का अर्थ है दुकानदारों का लाभ।
एक दूसरी मान्यता के मुताबिक, रिटेल स्टोर के कर्मचारियों के लिए यह दिन एकदम व्यस्त और थका देने वाला होता है, क्योंकि उन्हें दिनभर ग्राहकों की भारी भीड़ से जूझना पड़ता है। सो, कर्मचारियों के लिहाज से यह ब्लैक शब्द नकारात्मक है। ब्लैक फ्राइडे के महीना भर पहले ही ढेर सारी वेबसाइटें हल्ला मचाने और विज्ञापन करने लग जाती हैं। इन साइटों पर विभिन्न उत्पादों से जुड़ी पूरी जानकारी और मिलने वाली छूट, उपहारों तथा अन्य सुविधाओं का विस्तृत ब्यौरा होता है। इसके अलावा भी दुकानदार विज्ञापन के अन्य पारंपरिक और गैर-पारंपरिक आधुनिक साधनों का इस्तेमाल करते हैं। सबका मंतव्य एक ही होता है कि किसी तरह उपभोक्ताओं को खरीदारी के लिए प्रेरित किया जाए। इस विवरण से निश्चित तौर पर आपको भारत में धनतेरस के दौरान मचने वाली विज्ञापनी होड़ याद आ रही होगी।
बहरहाल, अमेरिका में इस प्रचलन के विरोधियों की भी कमी नहीं है। कनाडा में हालांकि ब्लैक फ्राइडे का उतना महत्व नहीं है, पर उत्तरी अमेरिका के पूंजीवाद विरोधियों ने इस दिन को बाय नथिंग डे यानि कुछ मत खरीदिए दिन के रूप में चुना है। इस दिन वे बाकायदा रैलियां निकालकर व अन्य साधनों से अपील करते हैं कि आप कुछ मत खरीदिए। उनके इस विरोध के विरोधियों यानि पूंजीवाद और बाजार समर्थकों का कहना है कि उपभोक्ता इससे भले ही एक दिन के लिए अपनी खरीदारी टाल दे, पर अगले दिन तो वह दुगुनी खरीदारी कर सारी कसर पूरी कर ही देगा। वैसे, परंपरानुसार किसी भी महीने की 13 तारीख को पड़ने वाला शुक्रवार भी ब्लैक फ्राइडे कहलाता है और ईस्टर के पहले आने वाले शुक्रवार को भी यही नाम दिया गया है।
zabardast kaha
ReplyDeletetathyaparak kaha
umda kaha
badhaai !
Really very good analysis.New idaes are always appriciated.
ReplyDeletedr.bhoopendra
jeevansandarbh.blogspot.com
आपका,लेख की दुनिया में हार्दिक स्वागत
ReplyDeleteराजेश जी अभिवादन, ब्लाग जगत में स्वागत है। आपका लेख पढा, अच्छा लगा। आशा है सातत्य बनाए रखेगें।
ReplyDeleteआप का लेख अच्छा लगा धन्यवाद|
ReplyDeleteइस नए और सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteशानदार प्रयास बधाई और शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteएक विचार : चाहे कोई माने या न माने, लेकिन हमारे विचार हर अच्छे और बुरे, प्रिय और अप्रिय के प्राथमिक कारण हैं!
-लेखक (डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश') : समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान- (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। जिसमें 05 अक्टूबर, 2010 तक, 4542 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता राजस्थान के सभी जिलों एवं दिल्ली सहित देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे), मो. नं. 098285-02666.
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